बुधवार, 23 जनवरी 2013

छुट्टी

अनुशासन भंग कर
मन को कल्पना लोक के
उस जगत तक पहुचाना
जहाँ अंकुश ना हो
जहाँ हो हल्ला
रेलम-पेल
भागम - भाग
धमा - चौकड़ी
और हो  बन्धनों से
निकल छूटने की
आजादी
आनंद ही आनंद!
यही तो होता है
छुट्टी का अर्थ
है ना ।। 

शनिवार, 19 जनवरी 2013

विडम्बना

नियति चक्र न रुका कहीं 
विडम्बना ही सही
चलती रही जीवन की गति 
कुछ टूटी सी कुछ फूटी सी 
कुछ उनके संस्कारों सी 
कुछ उनकी पहचानी सी
चल ही रही है 
बिन जीवनदाता के..........
अधकचरी सी जीवनी 

माँ पापा....
अनंत की यात्रा पर 
कर लेना तुम हमको याद 
देना आशीष हमे वहीँ से
जिससे ये जीवन हो जाये 
"निष्पाप"।।
                 ~बोधमिता   

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

adhurapan

तेरे बारे में जो लिखती

बन जाती है एक कविता 

तू मेरे आदर्शों में स्थापित 

क्यूँ बैठी है रूठ के मुझसे 

तेरे बिना ये जीवन सूना 

सूनी हर एक राह डगर की 

छोड़ न तू साँसों की डोरी .....

या हिम्मत दे दे मुझको इतनी 

की जी लूँ मैं  ये जीवन ऐसे 

जिसमे हो प्रतिबिम्ब तुम्हारा 

देखकर मुझको लोग ये बोले 

देखो आयी  'उषा' की बेटी ।। 

                         ~बोधमिता 

क्या माँ के बिना जीवन चल पता है??? 

mamma i miss u....

बुधवार, 28 नवंबर 2012

दिल की बात



















दिल की बात

धीरे से कहती हूँ

हौले से सुनना

मै  शब्द हूँ

मुझको भावों में

पिरों कर सुनना

कल्पना के  जंगल

से प्यारी बातों को

छाँट  कर चुनना

मैं   माया   हूँ

 मुझको सपनो में

 पिरो कर बुनना ।।

                  ~ बोधमिता

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

rishta











मैंने जीवन के

 उतार - चढ़ाव देखे

तुम्हारी नज़रों से

 ज्वार - भाटे  की तरह

अपने से दूर  किया

तुमने  मुझे हाथ से

फिसलती हुई

रेत की तरह ।।

                     ~बोधमिता








शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

बचपन

कोई आ रहा है मेरे
बचपन के गाँव  से

धूल मिट्टी से सने हुए 
 हाथ  -   पैर
साथ साथ सायकल से गिरकर 
आये जो चोट के निशान 
खेल खेल में होने वाली 
तू-तू मैं-मैं से उपजी
     खिसियाहट 
एक दूसरे को मारने छेड़ने की 
   हरदम तिलमिलाहट
गिल्ली अपनी चतुराई से
आगे ले जाने की
 कसमसाहट 
खुद को हरदम जीतता हुआ 
      देखने का घमण्ड   
रेत पर घरोंदे बनाने और 
तोड़ने का सुकून
जिम्मेदारियों का आभाव 
चेहरे  पर हरदम
ताजे फूल सी मुस्कान 
भले ही कुछ देर के लिए 
वो ला रहा है 
मेरे बचपन के गाँव से 
कोई आ रहा है 
मेरे बचपन के गाँव से ।।
                        ~ बोधमिता 





मन ...


मन ये ऐसा बंधा हुआ है
पिंजरे  में बंद चिड़िया जैसे
जितना मै सुलझाना  चाहूँ
उलझा जाये सूत के जैसे
पंख लगा कर उड़ना चाहूँ
गिरता जाये पानी में पत्थर हो जैसे
आल्हादित हो खुश होना चाहूँ
ये  हो जाये सूने घर और आंगन जैसे

पर ये मन हार न माने
चीटी गिर-गिर चढ़ती  जाये जैसे
साहस तो देखो इस मन का
तोड़े इसने बंधन सारे
बैठ कर हर एक सूत काते
पत्थर  के टुकड़े कर डाले
सूना मन आबाद किया फिर
फिर तडपा यह  सूनेपन  को ।।