टिक टिक कर समय
अपनी गति से चल रहा था
समय बताती छोटी सुइयाँ
बिना रुके बिना थके
एक ही रफ़्तार से
चलती ही जा रही थी
उनके नाजुक कंधो पर
संसार को चलाने की
जिम्मेदारी जो थी
उन्हें कहाँ पता था
हम दोनों एक दूसरे को
टक - टकी लगाये
देख रहे हैं चुप - चाप
क्रोधाग्नि हम दोनों के
अंदर जल रही है
और हम है मौन
सन्नाटा तोड़ने का
साहस हम दोनों के
पास नहीं .…… ;
विचारों की आँधी में
हम काल चक्र
रोक लेना चाहते हैं,'
हमारे साथ खड़े हैं
बहुत से विरोधाभास
जो चुप्पी तोड़ने के लिए
मचल से रहे हैं
क्रोध ही उत्पन्न होता है
क्रोध को पी जाना ही
मनुष्यता है
मैने अपने मौन को
साध रखा है
तुम भी साधोगे न
अपना मौन …… . ।
~ बोधमिता ~