मैं सोना चाहती हूँ
किंतु....
यह मन तुम्हारी
यादों की कलाई थाम
मुझे लिए जाता है
तुम्हारे इर्द-गिर्द
मनस पर भाव उकेरता है
हृदय को बड़ा तड़पाता है
सुनो.... मैं सचमुच
रातों के सुनसान में,
कतई जागना नहीं चाहती,
और स्त्रियों की तरह
नियम-पूर्वक, शांत-चित्त
उठना जागना चाहती हूँ,
सारी संवेदनाओं को
थके हुए शरीर के साथ
नींद से भरी पलकों में छुपा,
देखना चाहती हूँ
कई सच्चे झूठे सपने,
अलसुबह सपनों की
जुगाली करना चाहती हूँ
सुनो ... सुनो ना...
मैं सोना चाहती हूँ
किंतु...
निद्रा का आवाहन करते ही
तुम्हारे कहे अनकहे सारे शब्द
नर्तक बन घूमते हैं,
मेरे मनस पटल पर
उकेरते हैं कई तस्वीरें
तुम्हारी - मेरी,
उन तस्वीरों के
पृष्ठ होते-होते
अनगिनत हो जाते हैं
और मेरी बोझिल पलके
झटके से खुल जाती हैं,
खुली पलकों से
सारा संसार अधूरा लगता है,
अतएव, पुनः नींद के आगोश में
समा जाना चाहती हूँ
हाँ मैं सोना चाहती हूँ
सुनो ! मैं गहरी नींद सोना चाहती हूँ!!
~ बोधमिता
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