रविवार, 25 जनवरी 2015

क्रोध.....

टिक टिक कर समय
अपनी गति से चल रहा था 
समय बताती छोटी सुइयाँ 
बिना रुके बिना थके 
एक ही रफ़्तार से 
चलती ही जा रही थी 
उनके नाजुक कंधो पर
संसार को चलाने की 
जिम्मेदारी जो थी 
उन्हें कहाँ पता था 
हम दोनों  एक दूसरे को 
टक - टकी  लगाये 
देख रहे हैं चुप - चाप
क्रोधाग्नि हम दोनों के  
अंदर जल रही है
और हम है मौन 
सन्नाटा तोड़ने का 
साहस हम दोनों के 
पास नहीं .…… ;
विचारों  की आँधी  में 
हम  काल चक्र 
रोक लेना चाहते हैं,'
हमारे साथ खड़े हैं 
बहुत से विरोधाभास
जो चुप्पी तोड़ने के लिए 
मचल से रहे हैं 
विरोध से बस 
क्रोध ही उत्पन्न होता है 
क्रोध को पी जाना ही 
मनुष्यता है  
मैने अपने मौन को 
साध रखा है 
तुम भी साधोगे न 
अपना  मौन …… .  । 
~ बोधमिता ~ 

  

  
  

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

ख्वाब












तुमको भीड़ में मिलाने की
बहुत कोशिश कर ली मैंने
सोचा था लोगो में खो कर
इतने न याद आओगे तुम
तुम्हारे ख्यालो को मैंने
बंद करना चाहा तालों में
और … 
सोच लिया अब तुम फिर-
 न आओगे मेरे ख्यालो में
पर तुम हर बार ही दस्तक
दे - दे कर
मन प्राण ही मेरे हरते हो
जब भी अकेली होती हूँ
खुद में……
प्रतिबिंब तुम्हारा पाती  हूँ

ख्वाब सी लगती तेरी बातें 


मैं खुद परी बन जाती हूँ
फिर सुध - बुध खो इस
 दुनिया से
तेरे - मेरे सपने बुनती हूँ
जब टूटे भरम तो फिर से मैं
तुझको भीड़ में मिलाने की
नाकाम सी कोशिश करती हूँ .......
                   ~ बोधमिता ~