रविवार, 3 जनवरी 2021

एक कतरा धूप

मैं बेसब्र इंतजार करती हूं 
उस धूप के कतरे का
जो हर रोज दोपहरी में
मेरे घर की मेज़ पर 
बैठ जाया करता है,

कभी मुलायम कभी तीखा
यह जो छोटा सा कतरा 
बैठा करता है मेरे पास  
मेरी जिंदगी के कई लम्हे 
अपने साथ समेट लेने को, 

करता है मुझसे बातें
अनवरत अनकही
कई चुप चाप सी 
ये लम्हा कभी शिकायती
कभी मासूम कभी ज़िद्दी
तो कभी शरारती होता है,

कभी कभी आने में 
नखरे किया करता 
कई बार बारिशों में 
बेशर्म नागे कर लेता
पर जाड़ों में आकर सदा 
सब्र ही दिया करता है,

मेरी मेज़ पर बैठा कतरा
निहारा करता है मेरे 
मन की सुंदरता को
और जगाया करता है
मेरे अंदर के सूर्य को!!

~बोधमिता