गुरुवार, 6 जून 2013

मन्जरी





मंजरियाँ आज टूट कर
बिखर जाना चाहतीं हैं
तुम्हारे अंग प्रत्यंग में
समां जाना चाहती हैं
तुम कहीं भी जाओ
चाहे बासुरी बजाओ,
 या   गउए   चराओ,
 या   नयना   लड़ाओ
मन्जरी चले तेरे साथ
सुवासित होवे तेरे माथ
चाहे  दे जगह चरणो में
 या   दे  जगह    हाथ
या गिरा दे किसी पाथ
'ओ' कान्हा मंजरी है तेरी
दे दे तू चाहे जो गति
                   ~ बोधमिता ॥

8 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है ..बहुत पसन्द आया
    ....... साझा करने के लिए ........हार्दिक धन्यवाद

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  2. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  3. आदरणीया बोधमिता जी ...बहुत सुन्दर भाव ..कोमल रचना ..प्रभु कान्हा में सब का मन करता ही है रम जाने का
    भ्रमर ५

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