मंजरियाँ आज टूट कर
बिखर जाना चाहतीं हैं
तुम्हारे अंग प्रत्यंग में
समां जाना चाहती हैं
तुम कहीं भी जाओ
चाहे बासुरी बजाओ,
या गउए चराओ,
या नयना लड़ाओ
मन्जरी चले तेरे साथ
सुवासित होवे तेरे माथ
चाहे दे जगह चरणो में
या दे जगह हाथ
या गिरा दे किसी पाथ
'ओ' कान्हा मंजरी है तेरी
दे दे तू चाहे जो गति
~ बोधमिता ॥
क्या बात है ..बहुत पसन्द आया
जवाब देंहटाएं....... साझा करने के लिए ........हार्दिक धन्यवाद
dhanyawad sanjay ji
हटाएंहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंThanks Sanjay ji
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .
जवाब देंहटाएंdhanyawad rajeev jee
हटाएंआदरणीया बोधमिता जी ...बहुत सुन्दर भाव ..कोमल रचना ..प्रभु कान्हा में सब का मन करता ही है रम जाने का
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
dhanyawad surendra jee
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