शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

मन ...


मन ये ऐसा बंधा हुआ है
पिंजरे  में बंद चिड़िया जैसे
जितना मै सुलझाना  चाहूँ
उलझा जाये सूत के जैसे
पंख लगा कर उड़ना चाहूँ
गिरता जाये पानी में पत्थर हो जैसे
आल्हादित हो खुश होना चाहूँ
ये  हो जाये सूने घर और आंगन जैसे

पर ये मन हार न माने
चीटी गिर-गिर चढ़ती  जाये जैसे
साहस तो देखो इस मन का
तोड़े इसने बंधन सारे
बैठ कर हर एक सूत काते
पत्थर  के टुकड़े कर डाले
सूना मन आबाद किया फिर
फिर तडपा यह  सूनेपन  को ।।

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