सोमवार, 24 सितंबर 2012

घात

पतंग की एक डोर थी
जो हाय मैंने छोड़ दी

समय के साथ उड़ रही
मुझे लगा की सध  गयी
था डोर पर मुझे यकीं
वही  घात  दे  चली ।

व्यंग की कटार  से
हाथ मेरे बिंध गये
फिर भी थामती रही
पतंग को चाहती रही



पतंग थी मेरी मनचली
जिधर हवा उधर चली
फिर भी डोर  हाथ में
थामती  ख़ुशी से मै

सोचती गगन तेरा
कर मौज से अठखेलियाँ
बुरी कोई नजर उठी तो
खींच  थाम  लूँ  तुझे

हाय !! ऐसा न हुआ
डोर दे गई दगा
मर्म मर्म भेद कर
वो हाथ छलनी कर गई ।।
                       ~ बोधमिता



4 टिप्‍पणियां: