दिल की बात, धीरे से कहती हूँ, हौले से सुनना मैं शब्द हूँ ,मुझको भावों में, पिरो कर सुनना ।।
शनिवार, 2 अप्रैल 2022
नववर्ष
रविवार, 3 जनवरी 2021
एक कतरा धूप
शनिवार, 6 जून 2020
garv
आज रोने को व्याकुल
हो चला मन
ऐ अंतर्मन तेरी कसम
खेल खिलौने रंग बिरंगे
चोकलेट आइस क्रीम रंग रंगीले
वस्त्रों का अम्बार लगा है
घर का हर कोना सजा हुआ है
फिर भी मन खरीदता फिरता
नाना वस्त्र 'औ' स्वाद चटखारे
बाजारों में रौनक होती
और जगमग कर उठता कोलाहल
मन कहता ये भी ले चल
मन के भीतर हरपल हलचल
एक छोटा बच्चा भूखा प्यासा
फटे चीथड़े वस्त्रों में
खड़ा हुआ ले भूखी आस
उदर अग्नि को शांत करने
चला आ रहा पीछे पीछे
कई धनाड्यों से दुत्कार खा चुका
फिर भी बेबस भूखा बच्चा
आँखों में मोती ले कहता
भूखा हूँ मै आज सुबह से
मेरे नहीं है माई - बाबा
भूखा हूँ मैं दे दो पैसा
खा लूँ एक समय कि रोटी... ..
आज खोखला हुआ दिखावा
बिखर गया एक सजा ह्रदय कक्ष
एक भूखे बच्चे को खाना
न खिला सका कोई गर्वीला मन
झूठा आडम्बर ओढ़ता फिरता
मेरे देश का सुखी संपन्न वर्ग
वर्गों में कट-बँट गया है
माँ के हर बच्चे का अंतस ...
--bodhmita
आजाद - देश!
युवा
उफ़ ये कैसा युवा वर्ग है
जिम में जाता जिमनास्ट नहीं है
खेलता कूदता सब की- बोर्ड पर
ना 'तन' स्वस्थ ना 'मन' स्वस्थ है
उफ़ ये कैसा युवा वर्ग है !
दुनिया इनकी बहुत बड़ी है
घर पर ही सब पा जाने की ख्वाहिश
पैसों की ताकत को जाने फिर भी
मुट्ठी कभी भी बंद नहीं है
उफ़ ये कैसा युवा वर्ग है !
इन्टरनेट को अपना माने
रिश्ते-नाते कर दिए किनारे
इनको भूख भी नेट की लगती
मैसेज ना पायें एक दिन भी
हो जाते ये बड़े बिचारे
उफ़ ये कैसा युवा वर्ग है !
मौसम कब दीवाना लगता
ये तो इनको होश नहीं है
घूमते बेसब्रों बेगानों जैसे
सोचे हम हैं बड़े सयाने
उफ़ ये कैसा युवा वर्ग है !
~ बोधमिता
बिटिया
दे गया उलाहना, संस्कारी मन !!
कैसे रौब गांठ लूँ तुझ पर,
तू मेरी नन्ही सी चिड़िया.
पिंजरे में बंद करूँ तो कैसे?
तू मेरी सांसों की हलचल.
किस अंकुश की खूंटी से बांधूं?
तू है मेरा नयन सितारा.
मेरी संस्कारों की बेडी ऐसी
जिसमे बंध बिंध गया लड़कपन
तुझको भी मन बांधना चाहे
तब दे गया उलाहना संस्कारी मन
हाथ पसारे गगन खड़ा है
नियति चक्र में रंग भरा है
इन्द्रधनुषी रंगों से आभाषित
गर्व - दर्प से चमके मस्तक
कलुष की कोई छाँव नहीं हो
हो उज्जवल अखंड ये तेरा जीवन
__बोधमिता
प्यार
प्यार करने वालों के दिल
कांच से क्यूँ होते हैं?
कभी सोचती हूँ दुनिया
बड़ी सुन्दर सजीली है
इसे सुन्दर बनाते हैं वो लोग
जिनके दिल की धड़कने
धड़कती है किसी और के लिए,
पर जहाँ ये धड़कने होती हैं
वो जगह बड़ी नाजुक सी होती है.
कभी सोचती हूँ आज के दौर में
प्यार करता है कौन?
जिनके दिल और दिमाग
परिपक्व होते हैं वो या
अपरिपक्व युवाओं के बीच ही
यह रिश्ता पनपता है और
दफ़न हो जाता है किसी गहरे गड्डे में
कहीं भी जाओ,किसी सड़क से गुजरो,
रेस्तरां में जाओ, बाग़ बगीचों में जाओ,
यहाँ तक की ऑनलाइन भी, हर तरफ से
आवाज आती है चटाक की ,
कांच ही तो है, चट से टूट जाता है
कभी न जुड़ने के लिए.
और जो कांच की चुभन होती है
वो बिखर जाती है सब तरफ, चारो ओर
जिनसे आह के सिवा
कुछ सुनाई ही नहीं देता.
कभी सोचती हूँ क्या
प्यार बुखार है छोटी कच्ची उम्र का?
या बदला है किसी टूटे हुए दिल का?
समझ नहीं आता , जाने कितने
लैला मजनू हुए , शीरी फरहाद हुए
फिर भी दुनिया में लोग आज भी
प्यार तो करते हैं, और करते रहेंगे.
दिल भी टूटेंगे, मुस्कुराहटें भी होंगी.
और ये दुनिया .......
ये दुनिया तो सुन्दर है, साहेब....
सुन्दर ही रहेगी
चाहे प्यार कांच से हो या पत्थर से !
~ बोधमिता