शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

मन ...


मन ये ऐसा बंधा हुआ है
पिंजरे  में बंद चिड़िया जैसे
जितना मै सुलझाना  चाहूँ
उलझा जाये सूत के जैसे
पंख लगा कर उड़ना चाहूँ
गिरता जाये पानी में पत्थर हो जैसे
आल्हादित हो खुश होना चाहूँ
ये  हो जाये सूने घर और आंगन जैसे

पर ये मन हार न माने
चीटी गिर-गिर चढ़ती  जाये जैसे
साहस तो देखो इस मन का
तोड़े इसने बंधन सारे
बैठ कर हर एक सूत काते
पत्थर  के टुकड़े कर डाले
सूना मन आबाद किया फिर
फिर तडपा यह  सूनेपन  को ।।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

श्याम















सांवली सूरत में,

मोहनी मूरत में,

'श्याम' तुम जचते हो।

अधरों की हंसी से,

बातों की मस्ती से,

'श्याम' तुम जचते हो।

लम्बे-लम्बे बालों में,

काली तिरछी आँखों में,

'श्याम' तुम जचते हो।

नटखट सी चालों में,

भोली सी बातों में,

'श्याम' तुम जचते हो।

तिरछी मुस्कानों में,

गलों के डिम्पल में,

'श्याम' तुम जचते हो।।
               
                     ~ बोधमिता 

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

जिंदगी!!!


कुछ जिन्दगियाँ

 कितनी आसान

       होती है 

   जरूरी नहीं

 इन्सान का जनम     

 ही मोक्ष के  लिए हो

यहाँ तो जानवर

 इंसानों से ज्यादा 

 अच्छा जी लेते हैं

एक वो जीवन जहाँ

 इन्सान कचरे से 

खाना बीन रहा है 

और एक वो जहाँ 

जानवर नखरों से 

खाना सूंघ रहा है 

गजब है रे दुनिया,

गजब है रे जीव !!                   ~बोधमिता 

vyakulta


एक आवरण में समा जाने के लिए, 

 मै व्याकुल हूँ 'तुझे' पा जाने के लिए | 

दीयों में रौशनी सदैव झिलमिलाने के लिए 

 मै व्याकुल हूँ 'बाती' बन जाने के लिए | 

कुछ कदम उठते हैं डगमगाने के लिए, 

मै व्याकुल हूँ उन्हें 'थाम' लेने के लिए | 

मुख में वाणी मिठास बिखेरने के लिए, 

मै व्याकुल हूँ 'जिह्वा' बन जाने के लिए | 

पौधों में पुष्प खिलखिलाने के लिए, 

मै व्याकुल हूँ 'तितली' बन जाने के लिए | 

सागर में नदियाँ मिल जाने के लिए  

मै व्याकुल हूँ 'धरा' बन जाने के लिए | 

                                      ~बोधमिता                                    

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सोमवार, 24 सितंबर 2012

रंग




















आज यूँ ही उठ कर
चली आई तेरे सामने 
न कोई साज-सज्जा 
न कोई बनाव-सिंगार 
यूँ तो हर वक़्त 
तेरे लिए सजने-सवरने 
का मन होता है 
पर आज ......
आज व्यथित है मन 
और द्रवित भी ...
तुम मेरे लिए निष्कपट 
और निश्छल हो हमेशा 
यह  जानती   हूँ   मै 
परन्तु रहो सदैव 
मेरी जिंदगी में 
यह नहीं चाहती  
मेरी जिंदगी जैसी 
श्वेत और श्याम थी 
तुम्हारे बिना 
मुझे वैसी ही जिंदगी 
के साथ रहना था 
पर तुम्हारे आते ही 
रंग भरने लगते हैं 
आँखों में सपने 
उतरने चढने लगते हैं 
तब लगता है की मै 
इन्द्रधनुष और तुम 
इन्द्र की तरह हो 
तुम्हारी आँखों में 
कभी छल कपट 
नहीं दिखता मुझे 
बस यही निष्कपटता  
तुम्हारी मुझे कर देती है 
तार     -      तार 
मै दुनिया का  एक 
बड़ा छलावा   हूँ 
तुम मुझसे दूर रहो 
कहीं मेरी संगती से 
तुम में वो अवगुण 
ना आ जायें  जो 
इन्द्र को कुटिल 
और श्रापित 
कर देता  था ।।
      ~बोधमिता 

घात

पतंग की एक डोर थी
जो हाय मैंने छोड़ दी

समय के साथ उड़ रही
मुझे लगा की सध  गयी
था डोर पर मुझे यकीं
वही  घात  दे  चली ।

व्यंग की कटार  से
हाथ मेरे बिंध गये
फिर भी थामती रही
पतंग को चाहती रही



पतंग थी मेरी मनचली
जिधर हवा उधर चली
फिर भी डोर  हाथ में
थामती  ख़ुशी से मै

सोचती गगन तेरा
कर मौज से अठखेलियाँ
बुरी कोई नजर उठी तो
खींच  थाम  लूँ  तुझे

हाय !! ऐसा न हुआ
डोर दे गई दगा
मर्म मर्म भेद कर
वो हाथ छलनी कर गई ।।
                       ~ बोधमिता



निर्वाण

निस्तेज सा सूरज लगे
निष्प्राण सी निज चेतना
नि:शब्द  सी वायु चले
नि:शक्त  सी हर वेदना
निकुंज कैसा है यहाँ
निष्ठुर दिखे मन आँगना
निमग्न होते जा रहे
निबद्ध सरे पल जहाँ
निमिष-निमिष कर जल रहा
निर्माल्य नारी - जाति  का
निर्भेद कर निर्मुक्त कर
निर्वाण सी यह प्रेरणा ।।
                 ~बोधमिता