शनिवार, 6 जून 2020

रात...

सर्द और अंधियारी रात
जिसमें सारी आधी बात

नयी पुरानी कुछ सौगात
दुल्हन लाने चली बारात
मनचलों की आवारगी सी
नवयुगलों की शर्मीली बात

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आधे चाँद की पूरी रात
नयनों नयनों चलती बात
सपनों के सच होने तक
पलकें नहीं झपकाती रात


जाने फिर क्या होती बात
मलिन साँझ के साए सी
हो जाती कजरारी रात
नववधू प्रौढ़ा हो जाती

युवक अनन्त में खो जाता
गृहस्थी के बोझ तले
अस्तित्व दबा ही रह जाता
जीवन गुत्थी उलझी जाती

इन उलझे धागे सुलझाने
जागो सहृदयी रातों में
बैठो कुछ मिठास भरो
अपनी रीति बातों में ||

~बोधमिता

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

मैं सोना चाहती हूँ...


मैं सोना चाहती हूँ
किंतु....
यह मन तुम्हारी
यादों की कलाई थाम
मुझे लिए जाता है
तुम्हारे इर्द-गिर्द
मनस पर भाव उकेरता है
हृदय को बड़ा तड़पाता है
सुनो.... मैं सचमुच
रातों के सुनसान में,
कतई जागना नहीं चाहती,
और स्त्रियों की तरह
नियम-पूर्वक, शांत-चित्त
उठना जागना चाहती हूँ,
सारी संवेदनाओं को
थके हुए शरीर के साथ
नींद से भरी पलकों में छुपा,
देखना चाहती हूँ
कई सच्चे झूठे सपने,
अलसुबह सपनों की
जुगाली करना चाहती हूँ
सुनो ... सुनो ना...
मैं सोना चाहती हूँ
 किंतु...
निद्रा का आवाहन करते ही
तुम्हारे कहे अनकहे सारे शब्द
नर्तक बन घूमते हैं,
मेरे मनस पटल पर
उकेरते हैं कई तस्वीरें
तुम्हारी - मेरी,
उन तस्वीरों के
पृष्ठ होते-होते
अनगिनत हो जाते हैं
और मेरी बोझिल पलके
झटके से खुल जाती हैं,
खुली पलकों से
सारा संसार अधूरा लगता है,
अतएव, पुनः नींद के आगोश में
समा जाना चाहती हूँ
हाँ मैं सोना चाहती हूँ
सुनो ! मैं गहरी नींद सोना चाहती हूँ!!
~ बोधमिता

शनिवार, 18 नवंबर 2017

मन करता है!

बैठ उसी की छाँव में
उसको ही गुनती जाऊँ
मन करता है।

सुन उसकी बातों को
हँस-हँस दोहरी हो जाऊँ
मन करता है।

याद करूँ तन्हाई में
और हौले से मुस्काऊँ
मन करता है।

दिल मे रख तस्वीरें उसकी
तकदीर मैं उसकी बन जाऊँ
मन करता है।

रातों में उसकी ख्वाहिश ले
मैं तकिये में घुस जाऊँ
मन करता है।

याद आए जब महफ़िल में वो
नीची नज़रें कर शरमाऊँ
मन करता है।

अल् सुबह ओस कणों में
मुस्काता उसको पा जाऊँ
मन करता है।

सोते जागते हर क्षण में
उसको ही मैं जपती जाऊँ
मन करता है।
~  बोधमिता

रविवार, 25 जनवरी 2015

क्रोध.....

टिक टिक कर समय
अपनी गति से चल रहा था 
समय बताती छोटी सुइयाँ 
बिना रुके बिना थके 
एक ही रफ़्तार से 
चलती ही जा रही थी 
उनके नाजुक कंधो पर
संसार को चलाने की 
जिम्मेदारी जो थी 
उन्हें कहाँ पता था 
हम दोनों  एक दूसरे को 
टक - टकी  लगाये 
देख रहे हैं चुप - चाप
क्रोधाग्नि हम दोनों के  
अंदर जल रही है
और हम है मौन 
सन्नाटा तोड़ने का 
साहस हम दोनों के 
पास नहीं .…… ;
विचारों  की आँधी  में 
हम  काल चक्र 
रोक लेना चाहते हैं,'
हमारे साथ खड़े हैं 
बहुत से विरोधाभास
जो चुप्पी तोड़ने के लिए 
मचल से रहे हैं 
विरोध से बस 
क्रोध ही उत्पन्न होता है 
क्रोध को पी जाना ही 
मनुष्यता है  
मैने अपने मौन को 
साध रखा है 
तुम भी साधोगे न 
अपना  मौन …… .  । 
~ बोधमिता ~ 

  

  
  

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

ख्वाब












तुमको भीड़ में मिलाने की
बहुत कोशिश कर ली मैंने
सोचा था लोगो में खो कर
इतने न याद आओगे तुम
तुम्हारे ख्यालो को मैंने
बंद करना चाहा तालों में
और … 
सोच लिया अब तुम फिर-
 न आओगे मेरे ख्यालो में
पर तुम हर बार ही दस्तक
दे - दे कर
मन प्राण ही मेरे हरते हो
जब भी अकेली होती हूँ
खुद में……
प्रतिबिंब तुम्हारा पाती  हूँ

ख्वाब सी लगती तेरी बातें 


मैं खुद परी बन जाती हूँ
फिर सुध - बुध खो इस
 दुनिया से
तेरे - मेरे सपने बुनती हूँ
जब टूटे भरम तो फिर से मैं
तुझको भीड़ में मिलाने की
नाकाम सी कोशिश करती हूँ .......
                   ~ बोधमिता ~
  

 


बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

मै !!!!

जब मै दुनिया मे आई
मुझे मेरे प्रभु ने 
 ताकत दी 
परों के रुप मे 
बचपन भर उन परों से 
मै खूब उड़ी 
उन्मुक्त....
यौवन की दहलीज पर 
बडी खूबसूरत  सी
 दुनिया दिखी 
मै ....
दुनिया मे बसने  लगी। 
और भूलने लगी
उन परों को 
धीरे  - धीरे बडी हुई 
दुनिया बसाई 
प्यारी सी दुनिया 
पर.………
पत़ा नही मन 
कहीं अटका हुआ 
सा था …  
कुछ चाहिए था 
परन्तु क्या 
कुछ समझ नही आया 
न जाने क्यू 
खुद को दुःखी पाया 
एक दिन 
मैने पुछा प्रभु से 
मै क्यू हूँ दुखी 
जबकी 
तेरा दिया सब है 
मेरे आस - पास 
प्रभु कुछ ना बोले 
मुझे लगा नाराज हैं
मै  सोचने लगी 
क्या हुआ ??
क्यू किया इष्ट को 
नाराज… 
तब सहसा
 आया मुझे याद 
उस ताकत का 
जो दी थी उसने
मुझे दुनिया मे
 आते ही  
मैने पाया उसको 
अपने ही अन्तर मे
वो पंख मिले मुझे 
बस जरा कमजोर हैं 
उन पंखों को
 मजबूत बनाना है 
और उडना है 
खुले आसमान मे 
उन्मुक्त  ......
           - बोधमिता ।।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

गुरुवार, 6 जून 2013

मन्जरी





मंजरियाँ आज टूट कर
बिखर जाना चाहतीं हैं
तुम्हारे अंग प्रत्यंग में
समां जाना चाहती हैं
तुम कहीं भी जाओ
चाहे बासुरी बजाओ,
 या   गउए   चराओ,
 या   नयना   लड़ाओ
मन्जरी चले तेरे साथ
सुवासित होवे तेरे माथ
चाहे  दे जगह चरणो में
 या   दे  जगह    हाथ
या गिरा दे किसी पाथ
'ओ' कान्हा मंजरी है तेरी
दे दे तू चाहे जो गति
                   ~ बोधमिता ॥