दिल की बात, धीरे से कहती हूँ, हौले से सुनना मैं शब्द हूँ ,मुझको भावों में, पिरो कर सुनना ।।
मंगलवार, 25 सितंबर 2012
vyakulta
एक आवरण में समा जाने के लिए,
मै व्याकुल हूँ 'तुझे' पा जाने के लिए |
दीयों में रौशनी सदैव झिलमिलाने के लिए
मै व्याकुल हूँ 'बाती' बन जाने के लिए |
कुछ कदम उठते हैं डगमगाने के लिए,
मै व्याकुल हूँ उन्हें 'थाम' लेने के लिए |
मुख में वाणी मिठास बिखेरने के लिए,
मै व्याकुल हूँ 'जिह्वा' बन जाने के लिए |
पौधों में पुष्प खिलखिलाने के लिए,
मै व्याकुल हूँ 'तितली' बन जाने के लिए |
सागर में नदियाँ मिल जाने के लिए
मै व्याकुल हूँ 'धरा' बन जाने के लिए |
~बोधमिता
सोमवार, 24 सितंबर 2012
रंग
आज यूँ ही उठ कर
चली आई तेरे सामने
न कोई साज-सज्जा
न कोई बनाव-सिंगार
यूँ तो हर वक़्त
तेरे लिए सजने-सवरने
का मन होता है
पर आज ......
आज व्यथित है मन
और द्रवित भी ...
तुम मेरे लिए निष्कपट
और निश्छल हो हमेशा
यह जानती हूँ मै
परन्तु रहो सदैव
मेरी जिंदगी में
यह नहीं चाहती
मेरी जिंदगी जैसी
श्वेत और श्याम थी
तुम्हारे बिना
मुझे वैसी ही जिंदगी
के साथ रहना था
पर तुम्हारे आते ही
रंग भरने लगते हैं
आँखों में सपने
उतरने चढने लगते हैं
तब लगता है की मै
इन्द्रधनुष और तुम
इन्द्र की तरह हो
तुम्हारी आँखों में
कभी छल कपट
नहीं दिखता मुझे
बस यही निष्कपटता
तुम्हारी मुझे कर देती है
तार - तार
मै दुनिया का एक
बड़ा छलावा हूँ
तुम मुझसे दूर रहो
कहीं मेरी संगती से
तुम में वो अवगुण
ना आ जायें जो
इन्द्र को कुटिल
और श्रापित
कर देता था ।।
~बोधमिता
घात
पतंग की एक डोर थी
जो हाय मैंने छोड़ दी
समय के साथ उड़ रही
मुझे लगा की सध गयी
था डोर पर मुझे यकीं
वही घात दे चली ।
व्यंग की कटार से
हाथ मेरे बिंध गये
फिर भी थामती रही
पतंग को चाहती रही
पतंग थी मेरी मनचली
जिधर हवा उधर चली
फिर भी डोर हाथ में
थामती ख़ुशी से मै
सोचती गगन तेरा
कर मौज से अठखेलियाँ
बुरी कोई नजर उठी तो
खींच थाम लूँ तुझे
हाय !! ऐसा न हुआ
डोर दे गई दगा
मर्म मर्म भेद कर
वो हाथ छलनी कर गई ।।
~ बोधमिता
जो हाय मैंने छोड़ दी
समय के साथ उड़ रही
मुझे लगा की सध गयी
था डोर पर मुझे यकीं
वही घात दे चली ।
व्यंग की कटार से
हाथ मेरे बिंध गये
फिर भी थामती रही
पतंग को चाहती रही
पतंग थी मेरी मनचली
जिधर हवा उधर चली
फिर भी डोर हाथ में
थामती ख़ुशी से मै
सोचती गगन तेरा
कर मौज से अठखेलियाँ
बुरी कोई नजर उठी तो
खींच थाम लूँ तुझे
हाय !! ऐसा न हुआ
डोर दे गई दगा
मर्म मर्म भेद कर
वो हाथ छलनी कर गई ।।
~ बोधमिता
priytam
कभी अच्छी तो कभी
बहुत बुरी जिंदगी
गुजार रही हूँ मैं
तुम्हारे बिना ।
कभी छोटी सी
बात गुदगुदाती है
कभी सुई मात्र
गिरने से
काँप जाती हूँ मैं
तुम्हारे बिना ।
कोयल का गाना
बहुत प्यारा है यहाँ
पर जब हवा मुझे
छू कर गुजरती है
तब विष बुझे बाण
सी लगाती है मुझे
तुम्हारे बिना ।
सूरज का बाल रूप
बहुत मनमोहक
और लुभावना है
फिर भी मन कोई
गीत गाता नहीं
तुम्हारे बिना ।
~बोधमिता .
बहुत बुरी जिंदगी
गुजार रही हूँ मैं
तुम्हारे बिना ।
कभी छोटी सी
बात गुदगुदाती है
कभी सुई मात्र
गिरने से
काँप जाती हूँ मैं
तुम्हारे बिना ।
कोयल का गाना
बहुत प्यारा है यहाँ
पर जब हवा मुझे
छू कर गुजरती है
तब विष बुझे बाण
सी लगाती है मुझे
तुम्हारे बिना ।
सूरज का बाल रूप
बहुत मनमोहक
और लुभावना है
फिर भी मन कोई
गीत गाता नहीं
तुम्हारे बिना ।
~बोधमिता .
रविवार, 8 जुलाई 2012
"बहन "
चलते ~ फिरते
आते जाते
उन गलियों के
चौबारों में
जब ~ जब मैं
झाँका करती हूँ
तब तू बड़ा
याद आती है
"बहन"
माँ का गुस्सा
लाड पिता का
सबका किया था
हमने सांझा
सुख भी बाँटा
दुःख भी बाँटा
बाँट लिया था
थोडा जीवन
फिर ऐसा क्या
इतर हुआ कि
मेरी अपनी
और है दुनिया
तेरी दुनिया
कहीं और की
कितने उत्सव
आते जाते
कितनी खुशियाँ
भी मन जाती
सब मिल कर
कितना कुछ करते
तब तू इक
"याद"
सी बन कर
बस रह जाती है
"बहन"
~ बोधमिता
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